मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

"मलिन रंग "

लड़के का हाँथ मुट्ठी में भीचें हुए मालती उसे खींचकर घर से बाहर लाई और जहां बैठ बर्तन मांँझती वही नहलाने बैठ गई। पति के आवारापन और मुफ़लिसी की दोहरी मार ;इन सब से चिढ़ी बैठी कुछ बड़बड़ाने लगी,"सुबह - शाम बूँद भर को तरसें, ऊपर से ये त्यौहार भी सर पर आ बैठें, जिसमें पीने से ज्यादा बदन रंगने की लालसा में पानी बर्बाद जाए।" इतना कहकर रंग में पुते लड़के पर डिब्बे से पानी डालने लगी। एक बाल्टी का सारा पानी खर्च डाला जबकि सुबह से बमुश़्किल दो ही बाल्टी पानी जुटा पाई थी। फिर नहा चुके लड़के को सुखाने के लिए तौलिया लेने अंदर भागी। लड़का बैठा अपने साफ़ - सुथरे हाँथ - पांव देखकर ही हर्षित था जो कि मुहल्ले की टोलियों ने जमकर छपऐ थे। वह सर नीचे किए बैठा अपने बालों से गिरती बूँदें ज़मीन पर देख रहा था। सहसा ही बूँदों का रंग लाल होने लगा। सिर पर हाँथ फेरा तो हाँथों में सुर्खी छा गई। इतने में मालती तौलिया लेकर लौटी तो लड़के का हाल देख हैरान रह गई। चंद मिनट पहले ही नहलाया हुआ उसका बेटा फिर उसी धुन में बैठा था। असमंजस और क्रोध के मिश्रित भाव उसके चेहरे पर साफ़ देखे जा सकते थे। तभी एक आवाज़ आई "हैप्पी होली भाभी!", मालती ने उस तरफ़ देखा तो कुछ दूर पड़ोस का पंकज खड़ा मुस्कुरा रहा था। और उसके हाँथों में रंग की खाली पुड़िया थी जो कि कुछ देर पहले ही लड़के के ऊपर खाली की गई थी। वह आगे बोला, "भाभी आपको भी तिलक लगा देता लेकिन ये पूरी ही खाली...।इतना ही कह पाया कि मालती की तरेरती आँखें और चढ़ी त्यौरियाँ देखकर जब़ान संभाल ली और फिर" अच्छा भाभी! मैं चलता हूँ। "इतना कहकर बेहयाई और बिना किसी खेद के चलता बना। अशुभ के भय से वह कुछ न कह पाई, बस इस भाँति के लोगों और उनके विचारों की संकीर्णता को लानत ही दे सकी। पुड़िया भर रंग से सने बालों के साथ तब ही से शांत बैठा बालक फफ़क पड़ा। "हम कुछ नहीं कर सकते बेटा! लाचारी पर रंग मलना, कुछ लोगों के लिए यही होली का रिवाज़ है।" डबडबाई आँखों से वह बोली।

"हैप्पी होली "

"वहम "

खुशी दबी पड़ी पालों* में है, फरियाद फँसी नालों* में है। जिंदगी वहम से कम नहीं, हर   कदम  सवालों में है । दौर  है  ये  ख़यानत*  भरा अदब ...