मौजूदगी से तेरी इन बेकार नज़ारों को काम हो जाए,
देख ले तक के इक दफ़ा खुद ग़ज़ल ये शाम हो जाए ।
जिंदगी के पेचीदा सफ़र पे चलें उससे पहले,
कुछ घड़ी मखमली इन घासों पर आराम हो जाए ।
छुकर-सहलाकर देख लो इन सभी गुलनारों को,
बेदिल कर रहा इन्हें जो रूखापन गुमनाम हो जाए।
उस फ़लक को भी दे हिफाज़त आँखों से इतनी,
जमाल* से तेरे काली घटाओं का काम तमाम हो जाए।
पाक हो जाएं हवाएं भी तेरे इत्र से टकराके,
बेजा़न महक के मंसूबे नाकाम हो जाएँ।
राहुल कुमार "सक्षम"
जमाल - सौंदर्य
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें