गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

"फिसलन"


ज़ुदा  न  हों   कभी  गिर्द  मेरे  ही   थमी  देखूँ,

सोचूँ सबब* फिसलन का जो बिखरी नमी देखूँ।

इस  खौफ़  भरे मंजर  तक  कैसे आ  पहुँचा,

ये  कदम   अपने  देखूँ   कभी   ज़मीं   देखूँ।

बीता  हुआ  ग़ैरत*  का  हश्र* याद  आता जब,

मुरव्वत* भरी आदतें सभी अपनी सहमी  देखूँ।

टूटने  की  फिक्र  हमेशा    दिल  में   रहती,

जब  किसी  शाख़  में  बेहद  खमी*  देखूँ।

अब  यहीं फासलों  से मन  बहला  लेता हूँ,

तंग  बाजारों  में  मची गहमा - गहमी* देखूँ।

राहुल कुमार "सक्षम"

सबब- कारण,     मंजर - दृश्य,     ग़ैरत - शर्म,

हश्र - हाल,     मुरव्वत - लिहाज,     खमी- झुकाव,

गहमा-गहमी - भीड़।

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