ज़ुदा न हों कभी गिर्द मेरे ही थमी देखूँ,
सोचूँ सबब* फिसलन का जो बिखरी नमी देखूँ।
इस खौफ़ भरे मंजर तक कैसे आ पहुँचा,
ये कदम अपने देखूँ कभी ज़मीं देखूँ।
बीता हुआ ग़ैरत* का हश्र* याद आता जब,
मुरव्वत* भरी आदतें सभी अपनी सहमी देखूँ।
टूटने की फिक्र हमेशा दिल में रहती,
जब किसी शाख़ में बेहद खमी* देखूँ।
अब यहीं फासलों से मन बहला लेता हूँ,
तंग बाजारों में मची गहमा - गहमी* देखूँ।
राहुल कुमार "सक्षम"
सबब- कारण, मंजर - दृश्य, ग़ैरत - शर्म,
हश्र - हाल, मुरव्वत - लिहाज, खमी- झुकाव,
गहमा-गहमी - भीड़।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें