बुधवार, 25 अप्रैल 2018

"जमाल "

मौजूदगी से तेरी इन बेकार नज़ारों को काम हो जाए,

देख ले तक के इक दफ़ा खुद ग़ज़ल ये शाम हो जाए ।

जिंदगी  के    पेचीदा  सफ़र  पे  चलें   उससे पहले,

कुछ घड़ी  मखमली इन घासों पर आराम हो जाए ।

छुकर-सहलाकर देख लो इन सभी गुलनारों को,

बेदिल कर रहा  इन्हें जो   रूखापन गुमनाम हो जाए।

उस   फ़लक   को   भी दे हिफाज़त   आँखों से इतनी,

जमाल* से तेरे काली घटाओं का काम तमाम हो जाए।

पाक हो जाएं  हवाएं भी  तेरे इत्र से टकराके,

बेजा़न  महक  के  मंसूबे  नाकाम  हो  जाएँ।

राहुल कुमार "सक्षम"

जमाल - सौंदर्य

गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

उल्टे हालात

ईंटों में  तब्दील   उस शहर  को क्या देखूँ  अब,

सर हमारे तय जो उस कहर को क्या देखूँ अब।

जमाने भर का जिस्म में उतर चुका इतना,

बाजारू  इस  ज़हर   को   क्या देखूँ अब।

फर्ज़ से हटकर सुबहा भी आग फैला रही,

बेअसर इस  दोपहर  को   क्या देखूँ  अब।

पाने की तलाश  मीलों दूर  ला  चुकी,

छूटी उस रहगुजर को क्या देखूँ अब।

इंसान   खुद    तने   सा   कट   रहा,

घायल उस शजर*को क्या देखूँ अब।

राहुल कुमार "सक्षम"

शजर - पेड़

गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

"फिसलन"


ज़ुदा  न  हों   कभी  गिर्द  मेरे  ही   थमी  देखूँ,

सोचूँ सबब* फिसलन का जो बिखरी नमी देखूँ।

इस  खौफ़  भरे मंजर  तक  कैसे आ  पहुँचा,

ये  कदम   अपने  देखूँ   कभी   ज़मीं   देखूँ।

बीता  हुआ  ग़ैरत*  का  हश्र* याद  आता जब,

मुरव्वत* भरी आदतें सभी अपनी सहमी  देखूँ।

टूटने  की  फिक्र  हमेशा    दिल  में   रहती,

जब  किसी  शाख़  में  बेहद  खमी*  देखूँ।

अब  यहीं फासलों  से मन  बहला  लेता हूँ,

तंग  बाजारों  में  मची गहमा - गहमी* देखूँ।

राहुल कुमार "सक्षम"

सबब- कारण,     मंजर - दृश्य,     ग़ैरत - शर्म,

हश्र - हाल,     मुरव्वत - लिहाज,     खमी- झुकाव,

गहमा-गहमी - भीड़।

"वहम "

खुशी दबी पड़ी पालों* में है, फरियाद फँसी नालों* में है। जिंदगी वहम से कम नहीं, हर   कदम  सवालों में है । दौर  है  ये  ख़यानत*  भरा अदब ...