मंगलवार, 27 मार्च 2018

"फ़ना"


अश़्क सुखा  लूँ  ख़ुद इना हो जाऊँ,

या बहूँ  आब  सा  फ़ना हो   जाऊँ।

नज़र आऊँ बादलों की सिफ़्त बस मैं,

तिरे चारों तरफ़  इतना घना हो जाऊँ।

मचलती जहाँ तू किसी पत्ते की तरह,

उस  दरख़्त  का  मैं  तना  हो  जाऊँ।

लहजे की तेरे इतनी तासीर तो रहे,

कि जिससे मिलूँ आश़्ना हो  जाऊँ।

क़त्ल कर गुज़रना तमाम ख्बावों से भी,

मुख़्तसर सा भी गर तेरे बिना हो जाऊँ।

हवा ले पहुँचे मुझे मेरे तसव्वुर  से पहले,

सोचता हूँ इतना घुलूँ कि झीना हो जाऊँ।

राहुल कु "सक्षम"

गुरुवार, 22 मार्च 2018

"संघर्ष "


लहराती हँसी  के   सूरत पे   जाले देखे,

रंजीदगी  निहानि भले बेतरह पाले देखे।

तालिब़ देखा भूख़ में मचलता हुआ,

भरे  पेट  में   हजा़र   निवाले   देखे।

रातों   की    गुज़र   तारों   तले   देखी,

पहर दिन के मशक्कत के हवाले देखे।

बसर समझके मकान में रहती लाचारी,

चंद असबाब के मोहताज़ घरवाले देखे।

रोक न सकी फि़क्र भी ज़मीनी तपिश़ की,

कदम  उनके  यहीं   से गुज़रने  वाले  देखे।

राहुल कु "सक्षम"

सोमवार, 19 मार्च 2018

"दरकार"


दरकार ज़रा से इल्म की ये वक़्त  कुछ करता  क्यूँ नहीं,

ज़हन ये खा़ली तरकस सा एहसासे तीर भरता क्यूँ नहीं।


शबोरोज़ ही  बन रहीं  आँखों  पे गर्द  की   परतें,

अरसे का ठहरा ये गुबार आगे गुज़रता क्यूँ नहीं।


भरदी  हर  कसर   बाजि़व  तरकीबें  भी  बरतीं,

पतझड़ का शि़कार ये गुलशन सँवरता क्यूँ नहीं।


लफ्जों से  लबरेज़  हुए  तादाद में कई सफ़्हे,

पर इम्ला  कोई  जा़नदार  उभरता क्यूँ  नहीं।


बेतहाशा   रखता  है  तू  बादलों   का   जमाव, 

इस बंज़र जमीं पर बूँद भर भी गिरता  क्यूँ नहीं।


राहुल कुमार "सक्षम"

मंगलवार, 13 मार्च 2018

"भूल "

मुश़्किल दौर में यही चूकें हर बार हो  गईं,

दिक्कतें जो राह से न हटाईं कतार हो गईं ।

बेवक्त  ही  देर   से पड़ी  छलाँग  हाथों की,

लहर टकराई सब सीपीयांँ उस पार हो गईं ।

हम से ही वाकिफ़ हुए  न जो ऐब  हमारे,

शह्र के लोगों की  आंँखें अख़बार हो गईं।

नरमी से थपकती थीं जो कभी साथ मिलकर,

वो  सभी  उंँगलीय  अब  धारदार  हो गईं ।

    राहुल कु. "सक्षम "

मंगलवार, 6 मार्च 2018

"तमस "

हमारी ज़िन्दगी कई तरह के अंधेरों से घिरी हुई है और इन मुश़्किलों में रौशनी दिखाती मेरी ये ग़ज़ल.....


गुमराही से इतर सीधी  राह  लेकर   चलना,
गहरा है तमस हर तरफ थाह लेकर चलना।

छुपकर मिलते हैं लोग झूठे  लिबासों में,
आँखों  में  भेदी  निगाह  लेकर  चलना।

देखना किसी मज़लूम का आशियाना न ढले।
गर  दबी जो  दिल  में  आह  लेकर  चलना।

ढह  जाती है  चहारदीवारी भी छतों समेत,
यारों  ख़ुदा के  घर में पनाह लेकर चलना।

राहुल कु. "सक्षम"

"वहम "

खुशी दबी पड़ी पालों* में है, फरियाद फँसी नालों* में है। जिंदगी वहम से कम नहीं, हर   कदम  सवालों में है । दौर  है  ये  ख़यानत*  भरा अदब ...