दरकार ज़रा से इल्म की ये वक़्त कुछ करता क्यूँ नहीं,
ज़हन ये खा़ली तरकस सा एहसासे तीर भरता क्यूँ नहीं।
शबोरोज़ ही बन रहीं आँखों पे गर्द की परतें,
अरसे का ठहरा ये गुबार आगे गुज़रता क्यूँ नहीं।
भरदी हर कसर बाजि़व तरकीबें भी बरतीं,
पतझड़ का शि़कार ये गुलशन सँवरता क्यूँ नहीं।
लफ्जों से लबरेज़ हुए तादाद में कई सफ़्हे,
पर इम्ला कोई जा़नदार उभरता क्यूँ नहीं।
बेतहाशा रखता है तू बादलों का जमाव,
इस बंज़र जमीं पर बूँद भर भी गिरता क्यूँ नहीं।
राहुल कुमार "सक्षम"
बहुत अच्छा लिखा है
जवाब देंहटाएंNice
बहुत शुक्रिया
जवाब देंहटाएंThanku...
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