बुधवार, 2 मई 2018

"वहम "

खुशी दबी पड़ी पालों* में है,

फरियाद फँसी नालों* में है।

जिंदगी वहम से कम नहीं,

हर   कदम  सवालों में है ।

दौर  है  ये  ख़यानत*  भरा

अदब महज मिसालों में है।

रोज़   नई  कीमत   तय  है यहाँ

आदमियत फँसी जंजालों में है।

यही तसल्ली अंधेरे में  कायम है,

कुछ आग  बची  उजालों   में  है।

राहुल कुमार "सक्षम"

पाला - तुषार,         नाला - रोना चिल्लाना,

ख़यानत - भ्रष्टाचार

बुधवार, 25 अप्रैल 2018

"जमाल "

मौजूदगी से तेरी इन बेकार नज़ारों को काम हो जाए,

देख ले तक के इक दफ़ा खुद ग़ज़ल ये शाम हो जाए ।

जिंदगी  के    पेचीदा  सफ़र  पे  चलें   उससे पहले,

कुछ घड़ी  मखमली इन घासों पर आराम हो जाए ।

छुकर-सहलाकर देख लो इन सभी गुलनारों को,

बेदिल कर रहा  इन्हें जो   रूखापन गुमनाम हो जाए।

उस   फ़लक   को   भी दे हिफाज़त   आँखों से इतनी,

जमाल* से तेरे काली घटाओं का काम तमाम हो जाए।

पाक हो जाएं  हवाएं भी  तेरे इत्र से टकराके,

बेजा़न  महक  के  मंसूबे  नाकाम  हो  जाएँ।

राहुल कुमार "सक्षम"

जमाल - सौंदर्य

गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

उल्टे हालात

ईंटों में  तब्दील   उस शहर  को क्या देखूँ  अब,

सर हमारे तय जो उस कहर को क्या देखूँ अब।

जमाने भर का जिस्म में उतर चुका इतना,

बाजारू  इस  ज़हर   को   क्या देखूँ अब।

फर्ज़ से हटकर सुबहा भी आग फैला रही,

बेअसर इस  दोपहर  को   क्या देखूँ  अब।

पाने की तलाश  मीलों दूर  ला  चुकी,

छूटी उस रहगुजर को क्या देखूँ अब।

इंसान   खुद    तने   सा   कट   रहा,

घायल उस शजर*को क्या देखूँ अब।

राहुल कुमार "सक्षम"

शजर - पेड़

गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

"फिसलन"


ज़ुदा  न  हों   कभी  गिर्द  मेरे  ही   थमी  देखूँ,

सोचूँ सबब* फिसलन का जो बिखरी नमी देखूँ।

इस  खौफ़  भरे मंजर  तक  कैसे आ  पहुँचा,

ये  कदम   अपने  देखूँ   कभी   ज़मीं   देखूँ।

बीता  हुआ  ग़ैरत*  का  हश्र* याद  आता जब,

मुरव्वत* भरी आदतें सभी अपनी सहमी  देखूँ।

टूटने  की  फिक्र  हमेशा    दिल  में   रहती,

जब  किसी  शाख़  में  बेहद  खमी*  देखूँ।

अब  यहीं फासलों  से मन  बहला  लेता हूँ,

तंग  बाजारों  में  मची गहमा - गहमी* देखूँ।

राहुल कुमार "सक्षम"

सबब- कारण,     मंजर - दृश्य,     ग़ैरत - शर्म,

हश्र - हाल,     मुरव्वत - लिहाज,     खमी- झुकाव,

गहमा-गहमी - भीड़।

मंगलवार, 27 मार्च 2018

"फ़ना"


अश़्क सुखा  लूँ  ख़ुद इना हो जाऊँ,

या बहूँ  आब  सा  फ़ना हो   जाऊँ।

नज़र आऊँ बादलों की सिफ़्त बस मैं,

तिरे चारों तरफ़  इतना घना हो जाऊँ।

मचलती जहाँ तू किसी पत्ते की तरह,

उस  दरख़्त  का  मैं  तना  हो  जाऊँ।

लहजे की तेरे इतनी तासीर तो रहे,

कि जिससे मिलूँ आश़्ना हो  जाऊँ।

क़त्ल कर गुज़रना तमाम ख्बावों से भी,

मुख़्तसर सा भी गर तेरे बिना हो जाऊँ।

हवा ले पहुँचे मुझे मेरे तसव्वुर  से पहले,

सोचता हूँ इतना घुलूँ कि झीना हो जाऊँ।

राहुल कु "सक्षम"

गुरुवार, 22 मार्च 2018

"संघर्ष "


लहराती हँसी  के   सूरत पे   जाले देखे,

रंजीदगी  निहानि भले बेतरह पाले देखे।

तालिब़ देखा भूख़ में मचलता हुआ,

भरे  पेट  में   हजा़र   निवाले   देखे।

रातों   की    गुज़र   तारों   तले   देखी,

पहर दिन के मशक्कत के हवाले देखे।

बसर समझके मकान में रहती लाचारी,

चंद असबाब के मोहताज़ घरवाले देखे।

रोक न सकी फि़क्र भी ज़मीनी तपिश़ की,

कदम  उनके  यहीं   से गुज़रने  वाले  देखे।

राहुल कु "सक्षम"

सोमवार, 19 मार्च 2018

"दरकार"


दरकार ज़रा से इल्म की ये वक़्त  कुछ करता  क्यूँ नहीं,

ज़हन ये खा़ली तरकस सा एहसासे तीर भरता क्यूँ नहीं।


शबोरोज़ ही  बन रहीं  आँखों  पे गर्द  की   परतें,

अरसे का ठहरा ये गुबार आगे गुज़रता क्यूँ नहीं।


भरदी  हर  कसर   बाजि़व  तरकीबें  भी  बरतीं,

पतझड़ का शि़कार ये गुलशन सँवरता क्यूँ नहीं।


लफ्जों से  लबरेज़  हुए  तादाद में कई सफ़्हे,

पर इम्ला  कोई  जा़नदार  उभरता क्यूँ  नहीं।


बेतहाशा   रखता  है  तू  बादलों   का   जमाव, 

इस बंज़र जमीं पर बूँद भर भी गिरता  क्यूँ नहीं।


राहुल कुमार "सक्षम"

मंगलवार, 13 मार्च 2018

"भूल "

मुश़्किल दौर में यही चूकें हर बार हो  गईं,

दिक्कतें जो राह से न हटाईं कतार हो गईं ।

बेवक्त  ही  देर   से पड़ी  छलाँग  हाथों की,

लहर टकराई सब सीपीयांँ उस पार हो गईं ।

हम से ही वाकिफ़ हुए  न जो ऐब  हमारे,

शह्र के लोगों की  आंँखें अख़बार हो गईं।

नरमी से थपकती थीं जो कभी साथ मिलकर,

वो  सभी  उंँगलीय  अब  धारदार  हो गईं ।

    राहुल कु. "सक्षम "

मंगलवार, 6 मार्च 2018

"तमस "

हमारी ज़िन्दगी कई तरह के अंधेरों से घिरी हुई है और इन मुश़्किलों में रौशनी दिखाती मेरी ये ग़ज़ल.....


गुमराही से इतर सीधी  राह  लेकर   चलना,
गहरा है तमस हर तरफ थाह लेकर चलना।

छुपकर मिलते हैं लोग झूठे  लिबासों में,
आँखों  में  भेदी  निगाह  लेकर  चलना।

देखना किसी मज़लूम का आशियाना न ढले।
गर  दबी जो  दिल  में  आह  लेकर  चलना।

ढह  जाती है  चहारदीवारी भी छतों समेत,
यारों  ख़ुदा के  घर में पनाह लेकर चलना।

राहुल कु. "सक्षम"

मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

"मलिन रंग "

लड़के का हाँथ मुट्ठी में भीचें हुए मालती उसे खींचकर घर से बाहर लाई और जहां बैठ बर्तन मांँझती वही नहलाने बैठ गई। पति के आवारापन और मुफ़लिसी की दोहरी मार ;इन सब से चिढ़ी बैठी कुछ बड़बड़ाने लगी,"सुबह - शाम बूँद भर को तरसें, ऊपर से ये त्यौहार भी सर पर आ बैठें, जिसमें पीने से ज्यादा बदन रंगने की लालसा में पानी बर्बाद जाए।" इतना कहकर रंग में पुते लड़के पर डिब्बे से पानी डालने लगी। एक बाल्टी का सारा पानी खर्च डाला जबकि सुबह से बमुश़्किल दो ही बाल्टी पानी जुटा पाई थी। फिर नहा चुके लड़के को सुखाने के लिए तौलिया लेने अंदर भागी। लड़का बैठा अपने साफ़ - सुथरे हाँथ - पांव देखकर ही हर्षित था जो कि मुहल्ले की टोलियों ने जमकर छपऐ थे। वह सर नीचे किए बैठा अपने बालों से गिरती बूँदें ज़मीन पर देख रहा था। सहसा ही बूँदों का रंग लाल होने लगा। सिर पर हाँथ फेरा तो हाँथों में सुर्खी छा गई। इतने में मालती तौलिया लेकर लौटी तो लड़के का हाल देख हैरान रह गई। चंद मिनट पहले ही नहलाया हुआ उसका बेटा फिर उसी धुन में बैठा था। असमंजस और क्रोध के मिश्रित भाव उसके चेहरे पर साफ़ देखे जा सकते थे। तभी एक आवाज़ आई "हैप्पी होली भाभी!", मालती ने उस तरफ़ देखा तो कुछ दूर पड़ोस का पंकज खड़ा मुस्कुरा रहा था। और उसके हाँथों में रंग की खाली पुड़िया थी जो कि कुछ देर पहले ही लड़के के ऊपर खाली की गई थी। वह आगे बोला, "भाभी आपको भी तिलक लगा देता लेकिन ये पूरी ही खाली...।इतना ही कह पाया कि मालती की तरेरती आँखें और चढ़ी त्यौरियाँ देखकर जब़ान संभाल ली और फिर" अच्छा भाभी! मैं चलता हूँ। "इतना कहकर बेहयाई और बिना किसी खेद के चलता बना। अशुभ के भय से वह कुछ न कह पाई, बस इस भाँति के लोगों और उनके विचारों की संकीर्णता को लानत ही दे सकी। पुड़िया भर रंग से सने बालों के साथ तब ही से शांत बैठा बालक फफ़क पड़ा। "हम कुछ नहीं कर सकते बेटा! लाचारी पर रंग मलना, कुछ लोगों के लिए यही होली का रिवाज़ है।" डबडबाई आँखों से वह बोली।

"हैप्पी होली "

"वहम "

खुशी दबी पड़ी पालों* में है, फरियाद फँसी नालों* में है। जिंदगी वहम से कम नहीं, हर   कदम  सवालों में है । दौर  है  ये  ख़यानत*  भरा अदब ...