गुरुवार, 22 मार्च 2018

"संघर्ष "


लहराती हँसी  के   सूरत पे   जाले देखे,

रंजीदगी  निहानि भले बेतरह पाले देखे।

तालिब़ देखा भूख़ में मचलता हुआ,

भरे  पेट  में   हजा़र   निवाले   देखे।

रातों   की    गुज़र   तारों   तले   देखी,

पहर दिन के मशक्कत के हवाले देखे।

बसर समझके मकान में रहती लाचारी,

चंद असबाब के मोहताज़ घरवाले देखे।

रोक न सकी फि़क्र भी ज़मीनी तपिश़ की,

कदम  उनके  यहीं   से गुज़रने  वाले  देखे।

राहुल कु "सक्षम"

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