गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

उल्टे हालात

ईंटों में  तब्दील   उस शहर  को क्या देखूँ  अब,

सर हमारे तय जो उस कहर को क्या देखूँ अब।

जमाने भर का जिस्म में उतर चुका इतना,

बाजारू  इस  ज़हर   को   क्या देखूँ अब।

फर्ज़ से हटकर सुबहा भी आग फैला रही,

बेअसर इस  दोपहर  को   क्या देखूँ  अब।

पाने की तलाश  मीलों दूर  ला  चुकी,

छूटी उस रहगुजर को क्या देखूँ अब।

इंसान   खुद    तने   सा   कट   रहा,

घायल उस शजर*को क्या देखूँ अब।

राहुल कुमार "सक्षम"

शजर - पेड़

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